


मनोरंजन न्यूज़ डेस्क, हमारा समाज महिला प्रधान विषयों पर खुलकर बात नहीं करता है। शहर कोई भी हो गांव की मानसिकता आज भी वही है कि महिलाओं का स्वास्थ्य घर की प्राथमिकता नहीं है। और, ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि महिलाएं भी ऐसे मौकों पर खुद को असुरक्षित पाती हैं। महीने के उन चार दिनों में वह चूल्हे से दूर क्यों बैठी रहती है, यह खुलकर अपने बच्चों को नहीं बताती। जब बच्चे किशोर हो रहे होते हैं तो उनमें होने वाले शारीरिक परिवर्तन उनमें उत्सुकता जगाते हैं। वह जानना चाहता है कि वह क्या महसूस कर रहा है। यहां तक कि जीव विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षक भी प्रजनन अंगों के पाठ से दूर हो जाते हैं। फिल्म ‘छत्रीवाली’ की खासियत यह है कि यह सिर्फ कंडोम के इस्तेमाल की जरूरत की बात ही नहीं करती, बल्कि समस्या को जड़ से पकड़ती है और अंत तक उस पर टिकी रहती है।
एक तरह से देखा जाए तो फिल्म ‘छत्रीवाली’ देश में यौन शिक्षा की कमी से जूझ रहे बच्चों के लिए एक ऐसी सीख है, जिसे हर स्कूल में पढ़ाया जाना अनिवार्य है, लेकिन कम ही लोग इसे पढ़ाना चाहते हैं. यह फिल्म हाल ही में आई फिल्म ‘जनहित में जारी’ की तर्ज पर शुरू होती है। शुरुआत में ऐसा लगता है कि यह उसी कहानी पर आधारित एक और फिल्म है, लेकिन फिल्म के लेखक संचित गुप्ता और प्रियदर्शी श्रीवास्तव जल्द ही दूसरे गियर में आ जाते हैं। उत्तर भारत में प्रचलित मुहावरों को अपने संवादों में समाहित करते हुए लेखक की जोड़ी जल्द ही कहानी की नायिका सान्या के लिए रास्ता तय करती है।
यौन शिक्षा से जुड़ी फिल्मों के साथ समस्या यह है कि वर्जित विषयों की तरह इन फिल्मों को भी समाज में वर्जित फिल्मों की श्रेणी में ले लिया जाता है। लेकिन, एक तरह से इसके लिए सिनेमा निर्माता भी जिम्मेदार हैं। पिछले साल जून में सेंसर सर्टिफिकेट हासिल करने वाली फिल्म ‘छत्रीवाली’ अब रिलीज हो रही है और वह भी ओटीटी पर। सरकार ऐसी फिल्मों को पहले दिन से ही टैक्स फ्री करने की पहल कर सकती है और साथ ही सिनेमाघरों में उनकी स्क्रीनिंग अनिवार्य कर सकती है। अगर स्कूल जाने वाले बच्चों को 105 रुपये में ऐसी फिल्म देखने को मिल जाए तो वे इसे क्यों नहीं देखेंगे, कम से कम उन्हें रास्ता दिखाने वाला तो कोई होना चाहिए। फिल्म ‘छत्रीवाली’ की नायिका इसी रास्ते पर चलती है।